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छोरा कोल्हाटी का

किशोर शांताबाई काले

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13441
आईएसबीएन :8171192793

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छोरा कोल्हाटी का मराठी के युवा लेखक और समाज-सुधारक डॉक्टर किशोर शांताबाई काले की मार्मिक जीवन-गाथा है।

छोरा कोल्हाटी का मराठी के युवा लेखक और समाज-सुधारक डॉक्टर किशोर शांताबाई काले की मार्मिक जीवन-गाथा है। लेखक के शब्दों में- 'कोल्हाटी समुदाय की हर महिला का चीरहरण आज भी भरे बाजार में हजारी लोगों के सामने किया जाता है। कोल्हाटी समुदाय में बेटी का जन्म होने पर परिवार खुशी से झूम उठता है। इतनी खुशी बेटे के जन्म पर नहीं मनाई जाती। खूबसूरत बेटी को भविष्य की आमदनी का जरिया माना जाता है। छह-सात साल की उम्र में लड़की को लावणी नृत्य सिखाया जाता है। किसी भी खूबसूरत कोल्हाटी महिला की शादी नहीं की जाती। नृत्य कार्यक्रमों के दौरान अनेक लोग पैसे से उन्हें लुभाते हैं। जो आदमी लगातार ऊँची बोलियाँ लगाता है वही चीरा की रस्म का हकदार बनता है। यह रस्म और कुछ नहीं, शारीरिक संबंध का राजीनामा है।'' यहाँ महिला की डोली नहीं उठती बल्कि पुरुष ही महिला के घर रहने जाता है। जब महिला गर्भवती हो जाती है तो वह आदमी उसे छोड्‌कर चला जाता है और फिर कभी वापस नहीं आता। इसके बाद वह महिला फिर नृत्य शुरू कर देती है। इसके बाद फिर चीरा की रस्म होती है। यह सिलसिला चलता रहता है। डी. काले ने आगे लिखा है. 'मैं भी चीरा की रस्म से ही पैदा हुआ था। मेरे पिता कांग्रेस के विधायक थे। उन्होंने मेरी माँ के साथ चीरा की रस्म की थी। फिर वह माँ को छोड्‌कर चले गए और कभी वापस नहीं आए। मेरे जन्म के बाद माँ ने फिर नाचना शुरू कर दिया। 'कोल्हाटी घुमंतू समुदाय है। इसकी आबादी तकरीबन चार लाख है। यह समुदाय पूरे महाराष्ट्र में फैला है। राजस्थान में भी इस समुदाय के कुछ लोग हैं। हमारे समुदाय में कोई ऊँची जाति किसी नीची जाति का शोषण नहीं कर रही है। असलियत यह है कि कुछ गुंडे समुदाय पर हुक्म चलाते हैं, समुदाय की महिलाओं का शोषण करते हैं और उनसे धंधा कराते हैं।' ' डी. काले उन कुछ भाग्यशाली कोल्हाटियों में से है जिन्हें पढ़ने का मौका मिल गया। उनकी माँ सातवीं क्लास तक पढ़ी थीं। वह अध्यापक बनना चाहती थीं लेकिन समुदाय ने उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी। आखिरकार वह एक व्यक्ति के साथ भाग गई और उसके साथ शादी कर ली। डी. काले ने लिखा है, ''मेरी माँ मुझे तीन साल को, छोटी-सी उम्र में दादा के पास छोडू गई थी। प्राइमरी के एक अध्यापक ने मेरा नाम किशोर शांताबाई काले दर्ज कराया और मेरी स्कूली शिक्षा शुरू हो गई।' ' स्कॉलरशिप मिलने की बदौलत वह माध्यमिक कक्षा ' तक पहुँचे और फिर ग्रांट मेडिकल स्कूल की सीढ़ियाँ चढ़ गए। उन्होने अपनी जीवनी में आगे लिखा है. 'यही विशेष योग्यता के बावजूद मैं दो बार परीक्षा में नहीं बैठ सका क्योंकि प्रोफेसर को एकमुश्त चालीस हजार रुपये की रकम मैं नहीं दे पाया था। अगर छात्रावास के साथियों ने सहारा न दिया होता तो मैं अपना मानसिक संतुलन खो देता। मैं ही वही गरीब था ऐसी बात नहीं थी। कई और भी गरीब छात्र वही पड़ रहे थे। लेकिन उनमें से कई ने अमीर लड़कियों से शादी कर ली और परीक्षा पास करने के लिए दी जानेवाली रिश्वत चुका दी। लेकिन मेरी तकदीर ऐसी नहीं थी। मुझे अपनी फीस भरने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती। काफी हो-हल्ले के बाद रिश्वती प्रोफेसर का तबादला हो गया और मैंने आखिरकार एमबीबीएस पास कर लिया।.' कोल्हाटी समुदाय की महिलाओं पर होनेवाले अत्याचारों को बेबाकी से प्रस्तुत करनेवाली हिन्दी में पहली पुस्तक है- छोटा कोल्हाटी का?

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